Rôçk Kîñg

कागज का मजदूर

Rôçk Kîñg
कागज का मजदूर
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29 Nov 2020

राते अंधेरी मेरी, काटू करू सामना भी, खुद से ही दूर मै, और लगू पास खामखा ही, खुद मे बड़ा बना, पर मुझमें बड़ी खामियां थी, रखा खुद पे यकीन, की मेरी जैसे कामयाबी। परत मे फर्क था, जो लोग मेरे पास थे, फिर भी मै गलत सा, क्युकी वो मेरे खास थे, मुझे ना जानते, पर कांपे मेरे नाम से, बोलता ही हूं मै तो, होने लगते है हादसे, शाम को जो डूबता, ना सूरज आसमान का, मुझको जो पूजे ना, मसीहा इस जहान का, लिखना जो आया मुझे, लगता एक एहसान सा, कागज का मजदूर मै, और लिखना मेरा काम था, लगे सब आराम सा, मै नींद में सोचता, सब मेरे पास पर, जानु ना किसे खोजता, लिखता मै रहता हूं, ये काम मेरा रोज का, मैंने जो जो खो दिया, बस उसका एक अफसोस था, मन को मसोसता, खुद को ही मै हूं कोसता, खुद को जलाया मैंने, इसमें किसका लॉस था, सबूत मेरा ठोस था, पर हुआ ना निर्दोष मै, नशा नहीं मुझे, मै ढूंढू खुदको होश मे।

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1 year ago

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2 years ago

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2 years ago

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